सोनघाटी सभ्यता का योगदान प्राचीन आर्यावर्त में भी
मोहम्मद तस्लीम उल हक
बिहार की कैमूर पहारी श्रृंखला के क्षेत्र का सोनघाटी प्राचीन आर्यावर्त अर्थात भारत का समृद्ध सांस्कृतिक अंचल रहा है | आर्यों के भयावार जीवन के ठहराव के बाद वैदिक संस्कृति को अंतिम आकार मिला था |वेद की रिचाओं का स्वरुप भी स्थिर करने का स्थल रहा है | वैदिक काल में यहा अगस्य,वशिष्ट और विश्वामित्र के गुरुकुल चला करती थी | मनु के बाद राजा इक्च्वाकू के समय से वशिष्ठो की नामावली मिलती है | श्रीराम के पैदा लेने से सदियों पहले सत्यव्रत के पुत्र राजा हरिश्चन्द्र के द्वारा रोहतासगढ़ किला का मन्दिर बनाया था | कई धर्म ग्रथों के अनुसार सत्यव्रत के समय विश्वामित्र ने उस समय के देवराज से रिशित्वा या ब्रह्मनत्व पाने के लिए घोर शारीरिक ,मानसिक तप किया और विजय पायी थी | तब वशिष्ट गुरुकुल की मान्यता विश्वामित्र गुरुकुल से अधिक थी | इसी विश्वामित्र मुनि ने वेद के 24 अक्षरों वाली गायत्री की रचना की थी | तत्स्विव्रेंयुम भेर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नह प्रचोदयात | यह गेय मन्त्र था | भगवान श्रीराम के काल के विश्वामित्र भी इसी सोनघाटी क्षेत्र बिहार के थे | तब सोन का एक प्रचलित नाम हिरन्यवाह भी था |इन्होने ही अपने गुरुकुल (सिद्धिस्र्म) में रख कर राम-लक्ष्मण को उस वक्त की युद्ध कला की शिक्षा दी थी | बाल्मीकि रामायण के श्लोक से पता चलता है कि कैमूर उपत्यका वाले सोनघाटी क्षेत्र को भगवान राम कि शिक्षा भूमि होने का गौरव प्राप्त है | सिद्धाश्रम जाते समय कैमूर क़ी काली चोटी को देख कर राम पूछते है और विश्वामित्र इस सम्बन्ध में बताते है| सम्भवत महर्षि बाल्मीकि इसी क्षेत्र के थे | भारत के इस आदि कवि ने रामायण के किसकिन्धा कांड 40 /32 के एक श्लोक में लिखा है -ततो रक्त जलम प्राय्प्य शोणरंमय शिघ्रवाहिनाम | बौध्हयुग में इस क्षेत्र के पर्वतीय हिस्सों में सैकऱो बौध्ह विहार थे | धार्मिक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में ताराच्न्दी क़ि स्थापना नालंदा विश्वविद्यालय के प्रधान आचार्य नाग भट्ट ने क़ी थी |हर्षचरित के रचनाकार वाणभट्ट क़ी जन्मभूमि औरंगाबाद (बिहार ) का सोन नदी का तटवर्ती गाँव पीरु ( पित्रिकुत ) रहा है ||
मोहम्मद तस्लीम उल हक
बिहार की कैमूर पहारी श्रृंखला के क्षेत्र का सोनघाटी प्राचीन आर्यावर्त अर्थात भारत का समृद्ध सांस्कृतिक अंचल रहा है | आर्यों के भयावार जीवन के ठहराव के बाद वैदिक संस्कृति को अंतिम आकार मिला था |वेद की रिचाओं का स्वरुप भी स्थिर करने का स्थल रहा है | वैदिक काल में यहा अगस्य,वशिष्ट और विश्वामित्र के गुरुकुल चला करती थी | मनु के बाद राजा इक्च्वाकू के समय से वशिष्ठो की नामावली मिलती है | श्रीराम के पैदा लेने से सदियों पहले सत्यव्रत के पुत्र राजा हरिश्चन्द्र के द्वारा रोहतासगढ़ किला का मन्दिर बनाया था | कई धर्म ग्रथों के अनुसार सत्यव्रत के समय विश्वामित्र ने उस समय के देवराज से रिशित्वा या ब्रह्मनत्व पाने के लिए घोर शारीरिक ,मानसिक तप किया और विजय पायी थी | तब वशिष्ट गुरुकुल की मान्यता विश्वामित्र गुरुकुल से अधिक थी | इसी विश्वामित्र मुनि ने वेद के 24 अक्षरों वाली गायत्री की रचना की थी | तत्स्विव्रेंयुम भेर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नह प्रचोदयात | यह गेय मन्त्र था | भगवान श्रीराम के काल के विश्वामित्र भी इसी सोनघाटी क्षेत्र बिहार के थे | तब सोन का एक प्रचलित नाम हिरन्यवाह भी था |इन्होने ही अपने गुरुकुल (सिद्धिस्र्म) में रख कर राम-लक्ष्मण को उस वक्त की युद्ध कला की शिक्षा दी थी | बाल्मीकि रामायण के श्लोक से पता चलता है कि कैमूर उपत्यका वाले सोनघाटी क्षेत्र को भगवान राम कि शिक्षा भूमि होने का गौरव प्राप्त है | सिद्धाश्रम जाते समय कैमूर क़ी काली चोटी को देख कर राम पूछते है और विश्वामित्र इस सम्बन्ध में बताते है| सम्भवत महर्षि बाल्मीकि इसी क्षेत्र के थे | भारत के इस आदि कवि ने रामायण के किसकिन्धा कांड 40 /32 के एक श्लोक में लिखा है -ततो रक्त जलम प्राय्प्य शोणरंमय शिघ्रवाहिनाम | बौध्हयुग में इस क्षेत्र के पर्वतीय हिस्सों में सैकऱो बौध्ह विहार थे | धार्मिक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में ताराच्न्दी क़ि स्थापना नालंदा विश्वविद्यालय के प्रधान आचार्य नाग भट्ट ने क़ी थी |हर्षचरित के रचनाकार वाणभट्ट क़ी जन्मभूमि औरंगाबाद (बिहार ) का सोन नदी का तटवर्ती गाँव पीरु ( पित्रिकुत ) रहा है ||
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